पंचतंत्र की कहानियां :- बकरा, ब्राह्मण और तीन ठग, स्वभाव नहीं बदल सकता, बोलने वाली मांद

पंचतंत्र की कहानियां :- बकरा, ब्राह्मण और तीन ठग, स्वभाव नहीं बदल सकता, बोलने वाली मांद

(1)  स्वभाव नहीं बदल सकता

 संस्कार नहीं बदल सकते

किसी वन में एक सिंह अपनी पत्नी के साथ रहा करता था। एक बार सिंही ने दो पुत्रों को जन्म दिया। सिंह वन में जाकर भांति-भांति के पशुओं को मारकर अपनी पत्नी के लिए लाया करता था। किन्तु एक दिन की बात है कि दिन भर घूमने पर भी सिंह को कोई शिकार हाथ नहीं लगा।

इसी निराशा में वह घर वापस आ रहा था कि मार्ग में उसको एक सियार का बच्चा मिल गया। सिंह ने उसे उठाया और जीवित अवस्था में ही घर लाकर उसको अपनी पत्नी को सौंप दिया। सिंही ने पूछा, “आज भोजन के लिए कुछ नहीं मिला?”

“नहीं, इसके अतिरिक्त कुछ मिला ही नहीं। इसको भी शिशु समझकर मैंने मारा नहीं। क्योंकि कहा गया है कि प्राण पर संकट आने पर भी बालक की हत्या नहीं करनी चाहिए। अब तुम तो भूखी हो इस समय इसका ही आहार कर लो।”

शेरनी बोली, “जब बालक समझकर तुमने नहीं मारा तो मां होकर अपने पेट के लिए मैं इसकी हत्या क्यों करूं? प्राण जाने पर भी मनुष्य को किसी प्रकार का अकृत्य नहीं करना चाहिए। आज से यह मेरा तृतीय पुत्र है।”

उस दिन से उस सिंही ने उस सियार के शिशु को भी अपने शिशुओं की ही भांति अपना दूध पिलाना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार वह सियार शिशु सिंह-शिशुओं के साथ आहार-विहार करता हुआ आनन्द से दिन बिताने लगा। कुछ दिनों बाद एक जंगली हाथी उस वन में भटकता हुआ आ निकला।

उसको देखकर सिंह के दोनों शिशु उस पर क्रुद्ध होकर उसकी और दौड़ पड़े। उनको जाते देखकर उस सियार ने अपने सिंह भाइयों से कहा, “यह तो हाथी है! हाथी सिंह-कुल का स्वाभाविक शत्रु होता है, उसकी और नहीं जाना चाहिए।”

यह कहकर वह घर की ओर भाग गया। उसको भागता देखकर सिंह-शिशु भी निरुत्साहित होकर घर को लौट आए। किसी ने ठीक ही कहा है कि यदि युद्धभूमि से एक भी कायर भागने लगता है तो शेष सेना का भी उत्साह क्षीण हो जाता है।

घर पहुंचकर दोनों सिंह-शिशुओं ने सियार के हाथी को देखकर भाग आने की बात का उपहास किया। इससे सियार के बच्चे को क्रोध आ गया और उसने क्रोध में उनको भला-बुरा कहा। उसे क्रोधित देख, एकान्त में जाकर सिंही ने कहा, “बेटे! वे दोनों तुम्हारे छोटे भाई हैं। तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए।” सियार का क्रोध शान्त नहीं हुआ। वह कहने लगा, “मैं क्या इनसे कम हूं। मैं इनको अपमान का मजा चखाऊंगा।”

सिंही बोली, “हां बेटे! तुम कहते हो ठीक हो। तुम वीर हो, तुम विद्वान हो और तुम दर्शनीय भी हो। किन्तु जिस कुल में तुम उत्पन्न हुए हो उस कुल में हाथी का शिकार नहीं किया जाता।” “अब तुमने क्रोध कर ही लिया है तो मैं तुम्हें बताती हूं। तुम सियार हो, मैंने तुम्हें अपना दूध पिलाकर पालन-पोषण” किया है।

मेरे ये दोनों शिशु जब तक यह नहीं जानते कि तुम सिंह नहीं सियार हो, तब तक ही तुम्हारी कुशल है। इसलिए अच्छा यही है कि तुम अभी चुपचाप यहां से खिसक जाओ, अन्यथा यदि किसी दिन इनको पता लग गया तो ये तुमको मारे बिना नहीं छोड़ेंगे।”

सिंही की बात सुनकर सियार का बच्चा भय से कांप उठा। वह चुपचाप वहां से खिसककर, किसी प्रकार अपनी जान बचा अपने जातियों में जाकर मिल गया। इसलिए कहते हैं अपनी जात-बिरादरी के साथ ही रहना चाहिए, क्योंकि हम अपने स्वभाव नहीं बदल सकते।

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 (2) बकरा ब्राह्मण और तीन ठग

 किसी गांव में मित्रशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई।

एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।”
पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”
 
थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।” पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया।

आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला। उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है। थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया।

इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई। इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।

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(3) भूखे प्यासे शेर से सियार ने कैसे बचाई जान?

 बोलने वाली मांद
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक बार वह दिन-भर भटकता रहा, किंतु भोजन के लिए कोई जानवर नहीं मिला। थककर वह एक गुफा के अंदर आकर बैठ गया। उसने सोचा कि रात में कोई न कोई जानवर इसमें अवश्य आएगा। आज उसे ही मारकर मैं अपनी भूख शांत करुँगा।
उस गुफा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गुफा पर आया। उसने गुफा के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान देखे। उसने ध्यान से देखा। उसने अनुमान लगाया कि शेर अंदर तो गया, परंतु अंदर से बाहर नहीं आया है। वह समझ गया कि उसकी गुफा में कोई शेर छिपा बैठा है। चतुर सियार ने तुरंत एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।

उसने द्वार से आवाज लगाई- ‘ओ मेरी गुफा, तुम चुप क्यों हो? आज बोलती क्यों नहीं हो? जब भी मैं बाहर से आता हूँ, तुम मुझे बुलाती हो। आज तुम बोलती क्यों नहीं हो?’

गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज देकर सियार को बुलाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है। इसलिए आज मैं ही इसे आवाज देकर अंदर बुलाता हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई और कहा-‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि अंदर शेर बैठा है। वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और इस तरह सियार ने चालाकी से अपनी जान बचा ली।

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(4) दोस्ती की परख

 एक जंगल था। गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे। उन चारों में मित्रता हो गई। वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे। पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था। एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी।

खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"

उन्होंने कहा - "अच्छा ।"

तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।

एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा -

"तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"

गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया ।

कहने लगा - "बड़े भाई! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"

घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा? तुम कोई और उपाय करो ।

तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"

गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।

बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया ।

वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"

सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है। दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।

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(5)  चतुर बिल्ली

 एक चिड़ा पेड़ पर घोंसला बनाकर मजे से रहता था। एक दिन वह दाना पानी के चक्कर में अच्छी फसल वाले खेत में पहुंच गया। वहां खाने पीने की मौज से बड़ा ही खुश हुआ। उस खुशी में रात को वह घर आना भी भूल गया और उसके दिन मजे में वहीं बीतने लगे।

इधर शाम को एक खरगोश उस पेड़ के पास आया जहां चिड़े का घोंसला था। पेड़ जरा भी ऊंचा नहीं था। इसलिए खरगोश ने उस घोंसलें में झांक कर देखा तो पता चला कि यह घोंसला खाली पड़ा है। घोंसला अच्छा खासा बड़ा था इतना कि वह उसमें खरगोश आराम से रह सकता था। उसे यह बना बनाया घोंसला पसंद आ गया और उसने यहीं रहने का फैसला कर लिया।

कुछ दिनों बाद वह चिड़ा खा-खा कर मोटा ताजा बन कर अपने घोंसलें की याद आने पर वापस लौटा। उसने देखा कि घोंसलें में खरगोश आराम से बैठा हुआ है। उसे बड़ा गुस्सा आया, उसने खरगोश से कहा,

'चोर कहीं के, मैं नहीं था तो मेरे घर में घुस गए हो? चलो निकलो मेरे घर से, जरा भी शरम नहीं आई मेरे घर में रहते हुए?'

खरगोश शान्ति से जवाब देने लगा,

'कहां का तुम्हारा घर? कौन सा तुम्हारा घर? यह तो मेरा घर है। पागल हो गए हो तुम। अरे! कुआं, तालाब या पेड़ एक बार छोड़कर कोई जाता हैं तो अपना हक भी गवां देता हैं। यहां तो जब तक हम हैं, वह अपना घर है। बाद में तो उसमें कोई भी रह सकता है। अब यह घर मेरा है। बेकार में मुझे तंग मत करो।'

यह बात सुनकर चिड़ा कहने लगा,

'ऐसे बहस करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। किसी धर्मपण्डित के पास चलते हैं। वह जिसके हक में फैसला सुनायेगा उसे घर मिल जाएगा।'

उस पेड़ के पास से एक नदी बहती थी। वहां पर एक बड़ी सी बिल्ली बैठी थी। वह कुछ धर्मपाठ करती नजर आ रही थी। वैसे तो यह बिल्ली इन दोनों की जन्मजात शत्रु है लेकिन वहां और कोई भी नहीं था इसलिए उन दोनों ने उसके पास जाना और उससे न्याय लेना ही उचित समझा। सावधानी बरतते हुए बिल्ली के पास जा कर उन्होंने अपनी समस्या बताई।

उन्होंने कहा,

'हमने अपनी उलझन तो बता दी, अब इसका हल क्या है? इसका जबाब आपसे सुनना चाहते हैं। जो भी सही होगा उसे वह घोंसला मिल जाएगा और जो झूठा होगा उसे आप खा लें।'

'अरे रे !! यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, हिंसा जैसा पाप नहीं इस दुनिया में। दूसरों को मारने वाला खुद नरक में जाता है। मैं तुम्हें न्याय देने में तो मदद करूंगी लेकिन झूठे को खाने की बात है तो वह मुझसे नहीं हो पाएगा। मैं एक बात तुम लोगों को कानों में कहना चाहती हूं, जरा मेरे करीब आओ तो!!'

खरगोश और चिड़ा खुश हो गए कि अब फैसला हो कर रहेगा। और उसके बिलकुल करीब गए। फिर क्या? करीब आए खरगोश को पंजे में पकड़ कर मुंह से चिड़े को बिल्ली ने नोंच लिया। दोनों का काम तमाम कर दिया। अपने शत्रु को पहचानते हुए भी उस पर विश्वास करने से खरगोश और चिड़े को अपनी जानें गवांनी पड़ीं।

(सच है, शत्रु से संभलकर और हो सके तो चार हाथ दूर ही रहने में भलाई होती है। )

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